हमारे देश में अनेकों बार राजाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार किया जाता है। यह कथनात्मक भ्रम फैलाया जाता है कि राजाओं ने बहुत शोषण किया। लेकिन हम यदि भारत के लोकतंत्र इतिहास के चुनाव नतीजों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि कभी भी कोई शासन कर चुके राजा किसी चुनाव में नहीं हारे। बल्कि भारी बहुमत से जीते। ऐसा ही परिचय आता है बिहार के हज़ारीबाग जिले(वर्तमान में झारखंड राज्य में) के रामगढ़ राजपरिवार के अंतिम शासक राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी का। 1368 से इस वंश के 19 पीढ़ियों के राजाओं का यहाँ शासन रहा। देश को जब आजादी मिली तब एकीकृत बिहार में पूरे छोटा नागपुर इलाके में राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी का दबदबा रहा। एक समय ऐसा भी था, कि इस राजपरिवार का जिसे भी आशीर्वाद प्राप्त होता, उसे चुनाव में जीत मिल जाती थी।
राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी लगातार चुनाव जीते। उनके परिवार के भी लगभग 7-8 लोग एकसाथ चुनाव जीत कर विधायक व सांसद पदों पर रहे। चुनाव अभियानों में वहां नारे गुंजायमान रहते थे- वीर कामाख्या जिंदाबाद, वीर कामाख्या जिंदाबाद।
देश 1947 में स्वतंत्र हुआ लेकिन प्रजापालक राजा बहादुर कामाख्याजी ने 1944 में ही किसानों का लगान माफ कर दिया।
बिहार के रत्न एवं स्वतंत्रता सेनानी बाबू राम नारायण सिंहजी की इच्छा और डाॅ राजेन्द्र प्रसादजी के प्रयास से 1940ई° में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ऐतिहासिक महाअधिवेशन रामगढ़ में हुआ, जिसे सफल बनाने में तब राजा रामगढ़ ने तन-मन-धन से सहयोग दिया। 18 से 20 मार्च, 1940 को रामगढ़ में हुए इस अधिवेशन में दामोदर नदी के किनारे सैकङों पंडाल लगाए गए थे। इसमें महात्मा गांधी, पं जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ श्री कृष्ण सिंह, डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे तमाम नेताओं की भागीदारी हुई थी। स्वतंत्रता की लङाई में रामगढ़ राजा ने महात्मा गांधी का साथ दिया और 1940 के इस अधिवेशन में गांधीजी के चरणों में राज समर्पण की घोषणा की थी। अधिवेशन की सफलता से लोगों में ऊर्जा, तेज और उत्साह का संचार हुआ। इसी ऐतिहासिक अधिवेशन में अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन की नींव पङी, जिसके साढ़े छः साल बाद देश को आज़ादी मिली।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी उसी समय रामगढ़ में समानांतर अधिवेशन किया, जिसको भी स्थानीय जमींदार गौरीनाथ सिंहजी और रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंहजी का सक्रिय सहयोग मिला, जिससे लोगों का उत्साह दोगुना हो गया था।
रामगढ़ राजा की परोपकारी कार्यशैली और जनता में उनके प्रति समर्थन से प्रभावित हो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राजा बहादुर की उपाधि दी।
1946 में किया नई पार्टी का गठन:
राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी आजादी मिलने के पहले तक कांग्रेस में रहकर ही जनजागरण कार्यों में जुटे रहते थे, लेकिन बाद में पं जवाहरलाल नेहरू से अनबन होने पश्चात 1946 ई° में उन्होंने “छोटानागपुर संताल परगना जनता पार्टी” का गठन किया।
लोकतंत्र भारत की राजनीति में दिखाया अपने राजतंत्र शासन से भी अधिक शौर्य:
आज़ादी के पूर्व और पश्चात् जिस समय कांग्रेस की तूती बोलती थी, और देशभर में जब कांग्रेस लहर थी, तब उनके दिग्गज नेता राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी के विरुद्ध शिविर करते थे, लेकिन फिर भी ये चुनाव जीत जाते थे। राजा बहादुर साहब का प्रभाव इतना था कि उनकी पार्टी के उम्मीदवार धनबाद सहित आरा-छपरा से भी चुनाव जीतते थे। कांग्रेस लहर के बावजूद छोटा नागपुर के रामगढ़ राज के अंतिम राजा कामाख्या नारायण सिंहजी ने 1952, 1957, 1962 और 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को कङी टक्कर दी और स्वयं भारी बहुमतों से जीते। 1962 के विधानसभा चुनाव में तो उनकी पार्टी के 7 सांसद और 50 विधायक हो गये। सबसे बङी विपक्षी पार्टी होने के कारण उन्हें बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी मिला। जबकि बिहार में 1967 से 68 तक पहली बार विपक्ष की सरकार राजा रामगढ़ के सहयोग से ही बन पाई थी। उनके परिवार के ही भाई कुंवर बसंत नारायण सिंहजी, माताश्री शशांक मंजरी देवी, धर्मपत्नी ललिता राजलक्ष्मी, पुत्र टिकैत इंद्र जितेंद्र नारायण सिंहजी कई बार लोकसभा सदस्य और विधायक बने। बिहार सरकार में राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी, ललिता राजलक्ष्मी, कुंवर बसंत नारायण सिंहजी मंत्री भी बने। उनके सहयोग से ही बिहार में कई दिग्गज नेतात भी मंत्री बने। पुराने हजारीबाग जिले (यानी चतरा, हजारीबाग, कोडरमा, गिरीडीह, बोकारो और रामगढ़) में तो जिस किसी को भी इन्होंने चुनाव में खङा किया, वे जीतते रहे।
नेतृत्व कौशल रखने वाले राजा बहादुर कामाख्या जी ने 1951 से ही सरकार द्वारा गरीबों पर कर का बोझ बढ़ाने का विरोध किया और समाज के संपन्न भाग से ही भारी कर लेने का पक्ष रखा। 1951 में ही उन्होंने अपनी पार्टी की हजारीबाग की एक बङी सभा में #राइट_टू_रिकाॅल” का अधिकार जनता को देने की बात कही। उन्होंने कहा जनता को हम वह अधिकार देना चाहते हैं जिसके बल पर जनता अपने विधायकों की विधानसभा सदस्यता समाप्त कर सकें।
इन्हीं उपर्युक्त समाज-हितेशी घोषणाओं व कार्यों का परिणाम था कि 1952 के विधानसभा चुनाव अभियान में जब पं जवाहरलाल नेहरू ने रांची में रामगढ़ राजा बहादुर साहब की पार्टी को जमींदारों की पार्टी बताया, और जनता को उनकी पार्टी को वोट देने से मना कर दिया, तब भी जनता पार्टी के 11 उम्मीदवार जीतने में सफल हुए। और कमोवेश यही स्थिति 1957 के विधानसभा चुनाव में भी रही। 1962 का चुनाव आते-आते अपने कार्य कौशल और कांग्रेस की आंतरिक कलह के कारण रामगढ़ राजा की पार्टी को सराहनीय समर्थन मिला, जो तब रामगोपालचारी की स्वतंत्र पार्टी के बैनर तले चुनावी मैदान में थी। इस चुनाव में स्वतंत्र पार्टी को 50 सीटों पर जीत प्राप्त हुई और मुख्य विपक्षी दल की भूमिका मिली। राजा बहादुर कामाख्या जी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त हुआ।
लेकिन विपक्षी दलों में आंतरिक कलह के कारण स्वतंत्र पार्टी की बिहार इकाई पर अनुशासननिक कार्रवाई हुई और पार्टी अंततः भंग हो गई। ऐसे में रामगढ़ राजा बहादुर साहब ने फिर अपनी जनता पार्टी को पुनर्जीवित किया। बिहार में कांग्रेस से तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय की इच्छा के विरुद्ध रामगढ़ राजा ने दिल्ली जाकर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष कामराज से भेंट की और अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में करवा लिया। इस प्रकार 17 मई 1966 को जनता पार्टी के 38 विधायक, चार विधान परिषद सदस्य और छः लोकसभा सदस्य तथा एक राज्यसभा सदस्य कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय से तनातनी के बीच राजा कामाख्या नारायण सिंहजी अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस पार्टी छोड़ कर महामाया प्रसाद की जनक्रांति दल में शामिल हो गए।
बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के गठन में निभायी महत्वपूर्ण भूमिका:
1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को अपने अंतर्कलह के कारण मात्र 128 सीटें मिली और पहली बार महामाया प्रसाद(5वे मुख्यमंत्री) की गैर कांग्रेसी सरकार बिहार में बनी। इस सरकार में राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंहजी, उनके भाई बसंत नारायण सिंहजी और उनके कई समर्थक मंत्री भी बने।
बाद में भोला पासवान शास्त्री (8वे मुख्यमंत्री, कांग्रेस) के मंत्रीमंडल में भी रामगढ़ राजा लोक निर्माण मंत्री बने। इस सरकार में राजा बहादुर कामाख्या जी के 17 विधायक थे। कांग्रेस द्वारा गठबंधन की शर्तें पूरी नहीं करने पर 25 जून 1968 को उन्होंने सरकार से समर्थन वापसी का पत्र तत्कालीन राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो को भेज दिया, जिसके कारण शास्त्री सरकार का पतन हुआ। और 1968 में बिहार में पहली बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ।
राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह पहले आम चुनाव 1952 से लेकर लगातार अपने जीवन के अंतिम क्षण 1970 तक विधानसभा के सदस्य रहे। कई चुनावोंमें राजा कामख्या नारायण सिंह एक साथ कई क्षेत्रों से जीतने वाले एक अकेले नेता थे।
इस वृतांत से सिद्ध होता है कि राजाओं में जनता के प्रति उनका लगाव था इसीलिए जनता में भी अपने राजाओं के प्रति लगाव रहा। आज नेताजी गद्दी से हट जाएं तो कोई इन्हें तवज्जों नहीं देता। जबकि राजा महाराजा जिनके राज भी चले गए उसके बाद भी ये जनता में जहाँ खङे हो गए वहां इनकी जयजयकार हुई। और भारी बहुमत से जीते। इन सब का कारण केवल यह है कि राजतंत्र शासनकाल में उनके हृदय में जनता के प्रति लगाव था। आत्मीयता थी। बिना आत्मीयता के समाज से इतना जुङाव संभव नहीं।
